विजयदशमी (दशहरा) 2025 – इतिहास, महत्व, कथा और उत्सव

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  विजयदशमी (दशहरा) 2025 – रावण दहन और अच्छाई की बुराई पर विजय का प्रतीक पर्व 🪔 प्रस्तावना भारत त्योहारों की भूमि है और यहाँ का हर पर्व एक गहरी सांस्कृतिक और आध्यात्मिक भावना से जुड़ा हुआ है। इन्हीं महान पर्वों में से एक है विजयदशमी (दशहरा) । यह त्योहार सत्य की असत्य पर, धर्म की अधर्म पर और अच्छाई की बुराई पर विजय का प्रतीक है। दशहरा न केवल धार्मिक दृष्टिकोण से बल्कि सामाजिक और सांस्कृतिक महत्व के कारण भी विशेष है। 📖 विजयदशमी का इतिहास (History of Vijayadashami) विजयदशमी का इतिहास हजारों वर्षों पुराना है। इसका संबंध दो प्रमुख पौराणिक कथाओं से जुड़ा है— रामायण की कथा भगवान श्रीराम ने लंका के राक्षस राजा रावण का वध इसी दिन किया था। रावण ने माता सीता का हरण किया था और धर्म की रक्षा के लिए श्रीराम ने युद्ध कर उसका अंत किया। इसीलिए दशहरे के दिन रावण दहन की परंपरा है। देवी दुर्गा की विजय एक अन्य कथा के अनुसार, इस दिन माँ दुर्गा ने महिषासुर नामक असुर का वध कर देवताओं को मुक्ति दिलाई थी। इसलिए इसे महानवरात्रि के बाद विजयदशमी के रूप में मनाया जाता है। 🌸...

A Heart of Mercy: The Divine Journey of Mother Teresa


A Heart of Mercy The Divine Journey of Mother Teresa
A Heart of Mercy The Divine Journey of Mother Teresa


 प्रस्तावना: करुणा और सेवा की मिसाल



26 अगस्त 1910 को वर्तमान मैसेडोनिया के स्कोप्जे नगर में एक नन्हीं बच्ची ने जन्म लिया, जिसे दुनिया ने आगे चलकर "मदर टेरेसा" के नाम से जाना। उनका असली नाम एग्नेस गोंजा बोयाजीजू था। ‘गोंजा’ का अल्बानियाई भाषा में अर्थ है – फूल की कली, जो आगे चलकर मानवता की सबसे सुंदर मुस्कान बन गई।




उनके पिता निकोला एक धार्मिक व्यापारी थे, परंतु उनके निधन के बाद परिवार को आर्थिक तंगी का सामना करना पड़ा। फिर भी, उनकी मां ड्राना बोयाजू ने बच्चों को त्याग, सेवा और सच्चे अर्थों में इंसानियत का पाठ पढ़ाया। माँ की सीख – “जो भी है, उसे सबसे बाँटो” – एग्नेस के कोमल मन में गहराई से बस गई।




धार्मिक जीवन की ओर पहला कदम



18 वर्ष की आयु में एग्नेस ने "सिस्टर्स ऑफ लोरेटो" संस्था से जुड़ने का निर्णय लिया और आयरलैंड चली गईं, जहाँ उन्होंने अंग्रेजी सीखी। 1929 में भारत आईं और दार्जिलिंग में मिशनरी स्कूल में शिक्षिका बनीं। उन्होंने हिंदी और बंगाली सीखी और गरीब बच्चों को शिक्षित करना अपना लक्ष्य बना लिया।




1931 में उन्होंने नन बनने की शपथ ली और आगे चलकर कोलकाता के सेंट मैरी स्कूल में पढ़ाने लगीं। 1937 में उन्हें "मदर" की उपाधि मिली और 1944 में वे स्कूल की प्रिंसिपल बन गईं।




आध्यात्मिक आह्वान और जीवन की दिशा में परिवर्तन



10 सितंबर 1946 को उन्हें ईश्वरीय संदेश प्राप्त हुआ। ट्रेन में यात्रा करते समय उन्हें महसूस हुआ कि प्रभु उन्हें शिक्षा से अधिक ज़रूरतमंदों की सेवा करने के लिए बुला रहे हैं। यह अनुभव उनके जीवन का निर्णायक मोड़ बना।




1948 में उन्होंने कॉन्वेंट छोड़ा, सफेद और नीली धारियों वाली साड़ी को अपनाया और पटना से नर्सिंग का प्रशिक्षण प्राप्त किया। उन्होंने कलकत्ता में गरीबों, बीमारों, अनाथों और बेसहारा लोगों की सेवा का कार्य प्रारंभ किया।




मिशनरीज ऑफ चैरिटी: सेवा का संगठित स्वरूप



1948 में उन्होंने "मिशनरीज ऑफ चैरिटी" की स्थापना की। 7 अक्टूबर 1950 को वेटिकन से इसे मान्यता मिली। संस्था का उद्देश्य था— भूखों, बीमारों, बेघर लोगों और समाज से बहिष्कृत पीड़ितों की सेवा।




संस्था की शुरुआत मात्र 13 सदस्यों से हुई थी, लेकिन मदर टेरेसा के समर्पण और करुणा ने इसे वैश्विक स्तर पर पहुंचा दिया। 1997 तक यह संस्था 123 देशों में कार्यरत थी।




उन्होंने 'निर्मल हृदय' और 'निर्मला शिशु भवन' जैसी संस्थाओं की स्थापना की, जो असाध्य रोगियों और अनाथ बच्चों की सेवा के लिए समर्पित थीं।




विवादों से घिरी सेवा



जहाँ एक ओर उन्हें भगवान का दूत कहा गया, वहीं दूसरी ओर आलोचकों ने उन पर धर्मांतरण की मंशा का आरोप भी लगाया। लेकिन मदर टेरेसा ने आलोचनाओं से परे रहकर केवल सेवा को अपना धर्म बनाया।




सम्मान और पुरस्कार



1962: पद्म श्री




1980: भारत रत्न




1979: नोबेल शांति पुरस्कार




1985: अमेरिकी ‘मेडल ऑफ फ्रीडम’




उनकी नोबेल पुरस्कार राशि ($192,000) को उन्होंने गरीबों की सेवा में लगा दिया।




अंतिम यात्रा और अमर योगदान



मदर टेरेसा को वर्षों तक दिल और किडनी की समस्याओं से जूझना पड़ा। 13 मार्च 1997 को उन्होंने मिशनरीज ऑफ चैरिटी के प्रमुख पद से त्यागपत्र दिया और 5 सितंबर 1997 को दुनिया को अलविदा कह दिया।




उनकी मृत्यु के समय संस्था में 4000 से अधिक सिस्टर्स और 300 सहयोगी कार्यरत थे। 19 अक्टूबर 2003 को उन्हें पोप जॉन पॉल द्वितीय द्वारा "धन्य" घोषित किया गया।




मदर टेरेसा के प्रेरक विचार




सुंदर दिखने वाले लोग हमेशा अच्छे नहीं होते, लेकिन अच्छे लोग हमेशा सुंदर होते हैं।




यह मायने नहीं रखता कि आपने कितना दिया, बल्कि आपने कितना प्रेम से दिया, यह ज़रूरी है।




भगवान हमसे सफलता नहीं, प्रयास की अपेक्षा करते हैं।




छोटी बातों में निष्ठावान रहें, उन्हीं में आपकी शक्ति छिपी होती है।




निष्कर्ष: एक जीवंत करुणा की प्रतिमूर्ति



मदर टेरेसा केवल एक नाम नहीं, बल्कि सेवा, प्रेम और मानवता की प्रतीक हैं। वे इस बात का जीवंत उदाहरण हैं कि सच्चे मन से किया गया सेवा कार्य ही सर्वोच्च धर्म है। आज भी उनकी कमी महसूस होती है। भारत और पूरी दुनिया को उनकी तरह निष्कलंक और निःस्वार्थ सेवकों की आवश्यकता है।

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