Rajneesh's Journey To Become Lord Osho
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एक ऐसा व्यक्ति जिसका रहस्यमय व्यक्तित्व जो चंद्र ग्रहन की तरह, होता तो है पर नग्न आंखो से दिखाई नही पडता । अध्यात्मिक शिक्षक,विवादास्पद नेता,वक्ता,योगी ,कामुक गुरु और रहस्यमयी धर्मगुरु जो ओशो के नाम विख्यात थे । हम बात कर रहे है आचार्य रजनीश(चन्द्र मोहन जैन) की। जिन्होंने गतिशील ध्यान को आध्यात्मिक अभ्यास का जरिया बनाया था ।ओशो ने रूढ़ीवादी समाज का विरोध किया। समाज में फैले धार्मिक, सांस्कृतिक और सामाजिक मानदंडों पर कई सवाल उठाए। ओशो एक अंतरराष्ट्रीय लोकप्रियता प्राप्त आध्यात्मिक गुरु थे।
मानवी कामुकता पर भी वे सार्वजनिक जगहों पर अपने विचार व्यक्त करते थे, इसीलिए अक्सर उन्हें “सेक्स गुरु” भी कहा जाता था, भारत में उनकी यह छवि काफी प्रसिद्ध थी, लेकिन बाद में फिर इंटरनेशनल प्रेस में लोगो ने उनके इस स्वभाव को अपनाया और उनका सम्मान किया।ओशो गाँधी जी के मुखर आलोचक भी थे।
ओशो ने अपने अधिकतर प्रवचनों में गांधी की विचारधारा का विरोध किया है। उनका मानना था कि यह विचारधारा मनुष्य को पीछे ले जाने वाली है। ओशो की एक किताब जो पूर्णत: गांधी जी पर केंद्रित है अस्वीकृति में उठा हाथ में ओशो कहते है मेरी दृष्टि में कृष्ण अहिंसक है और गांधी हिंसक हैं।
बिंदु |
जानकारी |
नाम |
ओशो और आचार्य रजनीश |
वास्तविक नाम |
चन्द्र मोहन जैन |
जन्म |
11 दिसंबर 1931 |
जन्म स्थान |
रायसेन, मध्यप्रदेश |
कार्यक्षेत्र |
धर्मगुरु |
पिता का नाम |
बाबूलाल जैन |
माता का नाम |
सरस्वती जैन |
मृत्यु |
19 जनवरी 1990 |
मृत्यु कारण |
कंजेस्टिव हार्ट फैल्योर |
मृत्यु स्थान |
पुणे, महाराष्ट्र |
ओशो का जीवन
ओशो रजनीश का जन्म मध्यप्रदेश के रायसेन जिले के एक छोटे से गांव कुचवाड़ा 11 दिसंबर 1931 को बाबूलाल और सरस्वती जैन के ग्यारवे बच्चे के रूप में हुआ था। उनके परिवार ने उनका नाम चंद्र मोहन जैन रखा। उनके पिता कपड़ा व्यापारी थे. ओशो का प्रारंभिक बचपन अपने दादा दादी के साथ बिता। उन्होंने अपने भविष्य के जीवन पर एक बड़ा प्रभाव डालने के लिए अपने शुरुआती जीवन के अनुभवों को श्रेय दिया था। ओशो ने 21 वर्ष की आयु में को मौलश्री वृक्ष के नीचे प्रबोध प्राप्त हुआ।
हितकारिणी कॉलेज जबलपुर में अध्ययन के दौरान उन्होंने कॉलेज के प्रशिक्षक के साथ किसी विषय पर बहस कर ली जिसके कारण उन्हें वहां से निकाल दिया गया था. जिसके बाद 1955 में डी.एन. जैन कॉलेज से दर्शनशास्त्र में B.A. किया. वे छात्र जीवन से ही लोगों को भाषण देते थे. वर्ष 1957 में सागर यूनिवर्सिटी से उन्होंने दर्शनशास्त्र में डिस्टिंक्शन के साथ M.A. किया.
वर्ष 1958 में ओशो जबलपुर विश्वविद्यालय में दर्शन शास्त्र के लेक्चरर के रूप में कार्य करने लगे और 1960 में वे प्रोफेसर बन गए. जबलपुर विश्वविद्यालय में पढ़ाने के साथ-साथ उन्होंने पूरे भारत की यात्रा की. समाजवाद और पूंजीवाद की अवधारणाओं पर ओशो अध्यात्मिक प्रवचन देने लगे. जिसके कारण वे पूरे भारत में आचार्य रजनीश के नाम से प्रसिद्ध हो गए. ओशो ने जोर देकऱ कहा कि भारत मात्र पूंजीवाद, विज्ञानं, प्रोद्योगिकी और जन्म नियंत्रण के माध्यम से ही समृद्ध हो सकता है। उन्होंने अपने प्रवचनो रुढ़िवादी भारतीय धर्म और अनुष्ठानों की आलोचना की और कहा सेक्स अध्यात्मिक विकास को प्राप्त करने की दिशा में पहला कदम है।
समाज का एक बड़ा हिस्सा उनके इस तरह के विचार के काफी आलोचक थे परंतु भारत का समृद्ध समाज उनकी ओर आकर्षित होने लगे उनसे परामर्श के लिए उनके पास आने लगे। वर्ष 1962 में जीवन जाग्रति केंद्र आयोजित किए और ध्यान पर केंद्रित शिक्षाओं का प्रचार करने लगे. 1966 तक वह एक अध्यात्मिक गुरु बन गए और उन्होंने आध्यात्मिक शिक्षा के लिए पूरी तरह समर्पित होने के लिए अपनी नौकरी को छोड़ दिया।
खुले दिमाग और स्पष्ट विचारों के कारण ओशो अन्य आध्यात्मिक गुरुओं से अलग थे. वर्ष 1968 में सेक्स पर आधारित प्रवचन श्रृंखला ‘फ्रॉम सेक्स टू सुपरकोनियनेस’ के प्रकाशन के बाद भारत के नेताओं और भारतीय प्रेस ने ओशो को सेक्स गुरु से नामकरण किया।
वर्ष 1970 में ओशो ने एक गतिशील ध्यान विधि लोगों के समक्ष प्रस्तुत की. ओशो के अनुसार यह विधि से ध्यान करके व्यक्ति दिव्यता का अनुभव प्राप्त कर सकता है. इसी वर्ष ओशो अपने शिष्यों के साथ मुंबई गए. मुंबई में अपने शुरुवाती दिन अपने अनुयायीओ के साथ व्यतीत किया था, जो “नव-सन्यासी” के नाम से जाते थे। इस समय में वे ज्यादातर आध्यात्मिक ज्ञान ही देते थे वर्ष 1971 में ओशो को भगवान श्री रजनीश के नाम से पहचाने जाने लगा. 1974 में रजनीश पुणे में स्थापित हुए, जहाँ उन्होंने अपने फाउंडेशन और आश्रम की स्थापना की ताकि वे वहाँ भारतीय और विदेशी दोनों अनुयायीओ को “परिवर्तनकारी उपकरण” प्रदान कर सके। 1970 के अंत में मोरारी देसाई की जनता पार्टी और उनके अभियान के बीच हुआ विवाद आश्रम के विकास में रूकावट बना।जिसके बाद वह अपने दो हजार शिष्यों के साथ अमेरिका चले गए. वर्ष 1981 में सेंट्रल ओरेगॉन में 100 स्क्वायर मीटर का खेत लिया और उसे रजनीशपुरम नामक शहर बनाने की कवायद की. रजनीशपुरम अमेरिका में शुरू होने वाला सबसे बड़ा अध्यात्मिक समुदाय बन गया. लाखों की संख्या में उनके अनुयाई प्रतिवर्ष आश्रम में आते थे. आगामी समय में ओशो ने अपने शिष्यों से बातचीत को सीमित कर दिया था और उनके आश्रम की गतिविधियां भी गोपनीय हो गई. जिसके कारण सरकारी एजेंसियां ओशो और उनके अनुयायियों के लिए संदिग्ध हो गई.
विवाद
वर्ष 1980 के मध्य में, आश्रम और स्थानीय सरकारी समुदाय के बीच संबंध तनावपूर्ण हो गए और यह पता चला कि आश्रम के सदस्य वायरटैपिंग से मतदाता धोखाधड़ी और आग लगने से लेकर हत्या के लिए विभिन्न गंभीर अपराधों में शामिल थे. आश्रम के कई नेता पुलिस से बचने के लिए भाग गए. ओशो (राजनीश) ने भी संयुक्त राज्य अमेरिका से भागने की कोशिश की लेकिन 1985 में गिरफ्तार कर लिया गया. ओशो पर जुर्माना लगाया गया और संयुक्त राज्य अमेरिका छोड़ने पर सहमति व्यक्त कराई गई.
अगले कई महीनों में उन्होंने नेपाल, आयरलैंड, उरुग्वे और जमैका समेत दुनिया भर के कई देशों की यात्रा की लेकिन उन्हें लंबे समय तक किसी भी देश में रहने की अनुमति नहीं थी.
ओशो को “गतिशील मध्यस्थता” की तकनीक पेश करने का श्रेय दिया जाता है जो असहनीय आंदोलन की अवधि के साथ शुरू होता है जो कैथारिस की ओर जाता है, और उसके बाद मौन और स्थिरता की अवधि होती है. यह तकनीक पूरी दुनिया से अपने शिष्यों के बीच बहुत लोकप्रिय हो गई.
ओशो और उनके अनुयायियों ने वास्को काउंटी, ओरेगन में एक समुदाय बनाया, जिसे 1980 के दशक में “राजनीशपुरम” कहा जाता था. अपने शिष्यों के साथ काम करते हुए, ओशो ने आर्थिक रूप से अस्थिर भूमि के विशाल एकड़ को एक संपन्न समुदाय में परिवर्तित कर दिया जिसमें सामान्य शहरी आधारभूत संरचना जैसे अग्नि विभाग, पुलिस, रेस्तरां, मॉल और टाउनहाउस शामिल थे.
मृत्यु
वर्ष 1987 में पुणे के कोरेगांव पार्क इलाके में स्थित अपने आश्रम लौट आए. उन्होंने ध्यान, पढाना और प्रवचन दिए लेकिन वह एक बार सफलता का आनंद लेने में सक्षम नहीं था। फरवरी 1989 में उन्होंने “ओशो रजनीश” नाम लिया, जिसे उन्होंने सितंबर में “ओशो” तक छोटा कर दिया।
19 जनवरी 1990 को 58 वर्ष की आयु में ओशो ने अपनी आखिरी सांस ली. ओशो की मृत्यु को लेकर संदेहास्पद तथ्य मौजूद हैं. पुणे में उनका आश्रम आज ओशो इंटरनेशनल ध्यान रिज़ॉर्ट के रूप में जाना जाता है। यह भारत के मुख्य पर्यटन आकर्षण में से एक है और हर साल दुनिया भर से लगभग दो लाख लोगों आते है।
उनकी मौत के बाद पुणे आश्रम का नियंत्रण ओशो के क़रीबी शिष्यों ने अपने हाथ में ले लिया। आश्रम की संपत्ति करोड़ों रुपये की मानी जाती है और इस बात को लेकर उनके शिष्यों के बीच विवाद भी है।
ओशो के शिष्य रहे योगेश ठक्कर ने बीबीसी मराठी से कहा, "ओशो का साहित्य सबके लिए उपलब्ध होना चाहिए. इसलिए मैंने उनकी वसीयत को बॉम्बे हाई कोर्ट में चैलेंज किया है।"
ओशो का डेथ सर्टिफिकेट जारी करने वाले डॉक्टर गोकुल गोकाणी लंबे समय तक उनकी मौत के कारणों पर खामोश रहे। लेकिन बाद में उन्होंने अपनी चुप्पी तोड़ते हुए कहा कि मृत्यु प्रमाण पत्र पर उनसे ग़लत जानकारी देकर दस्तख़त लिए गए।
अब डॉक्टर गोकुल गोकाणी ने योगेश ठक्कर के केस में अपनी तरफ से शपथपत्र दाखिल किया है।उनका कहना है कि ओशो की मौत के सालों बाद भी कई सवालों के जवाब नहीं मिल रहे थे और मौत के कारणों को लेकर रहस्य बरक़रार है।
मौत के दिन क्या हुआ
ओशो की मौत पर 'हू किल्ड ओशो' टाइटल से क़िताब लिखने वाले अभय वैद्य का कहते हैं, "19 जनवरी, 1990 को ओशो आश्रम से डॉक्टर गोकुल गोकाणी को फोन आया. उनको कहा गया कि आपका लेटर हेड और इमरजेंसी किट लेकर आएं."
डॉक्टर गोकुल गोकाणी ने अपने हलफनामे में लिखा है, "वहां मैं करीब दो बजे पहुंचा. उनके शिष्यों ने बताया कि ओशो देह त्याग कर रहे हैं. आप उन्हें बचा लीजिए. लेकिन मुझे उनके पास जाने नहीं दिया गया. कई घंटों तक आश्रम में टहलते रहने के बाद मुझे उनकी मौत की जानकारी दी गई और कहा गया कि डेथ सर्टिफिकेट जारी कर दें."
डॉक्टर गोकुल ओशो की मौत की टाइमिंग को लेकर भी सवाल खड़े करते हैं।डॉक्टर ने अपने हलफ़नामे में ये भी दावा किया है कि ओशो के शिष्यों ने उन्हें मौत की वजह दिल का दौरा लिखने के लिए दबाव डाला।
ओशो के आश्रम में किसी संन्यासी की मृत्यु को उत्सव की तरह मनाने का रिवाज़ था। लेकिन जब खुद ओशो की मौत हुई तो इसकी घोषणा के एक घंटे के भीतर ही उनका अंतिम संस्कार कर दिया गया और उनके निर्वाण का उत्सव भी संक्षिप्त रखा गया था।
ओशो की मां भी उनके आश्रम में ही रहती थीं. ओशो की सचिव रहीं नीलम ने बाद में एक इंटरव्यू में उनकी मौत से जुड़े रहस्यों पर कहा था कि ओशो के निधन की सूचना उनकी मां को भी देर से दी गई थी. नीलम ने इस इंटरव्यू में ये दावा किया था कि ओशो की मां लंबे समय तक ये कहती रहीं कि बेटा उन्होंने तुम्हें मार डाला.
योगेश ठक्कर का दावा है कि उनके आश्रम की संपत्ति हज़ारों करोड़ रुपये है और किताबों और अन्य चीज़ों से क़रीब 100 करोड़ रुपये रॉयल्टी मिलती है।
ओशो की विरासत पर ओशो इंटरनेशनल का नियंत्रण है। ओशो इंटरनेशन की दलील है कि उन्हें ओशो की विरासत वसीयत से मिली है।
योगेश ठक्कर का दावा है कि ओशो इंटरनेशनल जिस वसीयत का हवाला दे रहा है, वो फ़र्ज़ी है. हालांकि ओशो इंटरनेशनल पर लगे आरोपों का खंडन उनकी शिष्या अमृत साधना करती हैं।वे इन आरोपों को झूठ क़रार देती हैं.
ओशो पर ट्रेड मार्क
ओशो इंटरनेशनल ने यूरोप में ओशो नाम का ट्रेड मार्क ले रखा है. इस ट्रेड मार्क को एक दूसरी संस्था ओशो लोटस कम्यून ने चुनौती दी थी।
बीते साल 11 अक्टूबर को जनरल कोर्ट ऑफ़ यूरोपीयन यूनियन ने ओशो इंटरनेशनल के पक्ष में अपना फ़ैसला सुनाया।
ओशो इंटरनेशनल का कॉपीराइट और ट्रेड मार्क पर उठने वाले विवादों को लेकर कहना है कि वे ओशो के विचारों को शुद्ध रूप में उनके चाहने वालों तक पहुंचाता है, इसलिए ये अधिकार वे अपने पास रखना चाहते हैं।
लेकिन ओशो ने ख़ुद ही कभी कहा था कि कॉपीराइट वस्तुओं और चीज़ों का तो हो सकता है लेकिन विचारों का नहीं।
पुणे स्थित उनकी समाधि पर लिखी इस बात से ओशो की अहमियत का अंदाजा लगाया जा सकता है, "न कभी जन्मे, न कभी मरे. वे धरती पर 11 दिसंबर, 1931 से 19 जनवरी 1990 के बीच आए थे."
विचार
• अगर आप सत्य देखना चाहते हैं तो न सहमती में राय रखिये और न असहमति में.
• केवल वह लोग जो कुछ भी नहीं बनने के लिए तैयार हैं वह प्रेम कर सकते हैं.
• जेन लोग बुद्ध से इतना प्रेम करते हैं कि वो उनका मज़ाक भी उड़ा सकते हैं. यह अथाह प्रेम कि वजह से है, उनमे डर नहीं है.
• किसी से किसी भी तरह की प्रतिस्पर्धा की आवश्यकता नहीं है. आप स्वयं में जैसे भी हैं एकदम सही हैं. खुद को स्वीकार करिए.
• सवाल यह नहीं है कि कितना सीखा जा सकता है बल्कि इसके उलट, सवाल यह है कि कितना भुलाया जा सकता है.
• दोस्ती शुद्ध प्रेम है. यह प्रेम का सर्वोच्च रूप है जहाँ कुछ भी नहीं माँगा जाता, कोई भी शर्त नहीं होती, जहां बस देने में आनंद आता है.
• प्रसन्नता सदभाव की छाया है, वो सदभाव का पीछा करती है. प्रसन्न रहने का कोई और तरीका नहीं है.
• जीवन कोई दुखद घटना नहीं है, यह एक हास्य है. जीवित रहने का मतलब है हास्य का बोध होना.
• अगर आप एक दर्पण बन सकते हैं तो आप एक ध्यानी भी बन सकते हैं. ध्यान दर्पण में देखने की कला है.
• आत्मज्ञान एक समझ है कि यही सबकुछ है, यही बिलकुल सही है, बस यही है. आत्मज्ञान यह जानना है कि ना कुछ पाना है और ना कहीं जाना है.
• जेन एकमात्र वह धर्म है जो एकाएक आत्मज्ञान सीखाता है. इसका कहना है कि आत्मज्ञान में समय नहीं लगता, ये बस कुछ ही क्षणों में हो सकता है.
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