विजयदशमी (दशहरा) 2025 – इतिहास, महत्व, कथा और उत्सव

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  विजयदशमी (दशहरा) 2025 – रावण दहन और अच्छाई की बुराई पर विजय का प्रतीक पर्व 🪔 प्रस्तावना भारत त्योहारों की भूमि है और यहाँ का हर पर्व एक गहरी सांस्कृतिक और आध्यात्मिक भावना से जुड़ा हुआ है। इन्हीं महान पर्वों में से एक है विजयदशमी (दशहरा) । यह त्योहार सत्य की असत्य पर, धर्म की अधर्म पर और अच्छाई की बुराई पर विजय का प्रतीक है। दशहरा न केवल धार्मिक दृष्टिकोण से बल्कि सामाजिक और सांस्कृतिक महत्व के कारण भी विशेष है। 📖 विजयदशमी का इतिहास (History of Vijayadashami) विजयदशमी का इतिहास हजारों वर्षों पुराना है। इसका संबंध दो प्रमुख पौराणिक कथाओं से जुड़ा है— रामायण की कथा भगवान श्रीराम ने लंका के राक्षस राजा रावण का वध इसी दिन किया था। रावण ने माता सीता का हरण किया था और धर्म की रक्षा के लिए श्रीराम ने युद्ध कर उसका अंत किया। इसीलिए दशहरे के दिन रावण दहन की परंपरा है। देवी दुर्गा की विजय एक अन्य कथा के अनुसार, इस दिन माँ दुर्गा ने महिषासुर नामक असुर का वध कर देवताओं को मुक्ति दिलाई थी। इसलिए इसे महानवरात्रि के बाद विजयदशमी के रूप में मनाया जाता है। 🌸...

Adi Shankaracharya: The Monk Who Illuminated the World with the Torch of Self-Realization


Adi Shankaracharya: The Monk Who Illuminated the World with the Torch of Self-Realization


Adi Shankaracharya: The Monk Who Illuminated the World with the Torch of Self-Realization

"आदि शंकराचार्य: आत्मज्ञान की मशाल से जगत को आलोकित करने वाला सन्यासी"

प्रस्तावना

भारतीय संस्कृति और दर्शन की विशाल परंपरा में आदि शंकराचार्य एक ऐसे महान विचारक, संत और सुधारक के रूप में उभरे, जिन्होंने न केवल सनातन धर्म को पुनर्जीवित किया, बल्कि अद्वैत वेदांत के माध्यम से पूरे भारत को एकता के सूत्र में पिरोया। उनका जीवन अल्पकालिक था – मात्र 32 वर्ष – लेकिन इस छोटे जीवन में उन्होंने जो कार्य किए, वे हजारों वर्षों तक मानवता का मार्गदर्शन करते रहेंगे।


जन्म और प्रारंभिक जीवन

आदि शंकराचार्य का जन्म केरल के कालड़ी नामक गांव में हुआ था। उनके पिता का नाम शिवगुरु और माता का नाम आर्यांबा था। दोनों ही धार्मिक प्रवृत्ति के थे। कहा जाता है कि शिवगुरु और आर्यांबा ने संतान प्राप्ति के लिए भगवान शिव की तपस्या की। भगवान शिव ने उन्हें स्वप्न में दर्शन देकर वरदान दिया – "एक अत्यंत तेजस्वी, ज्ञानवान और अल्पायु पुत्र होगा।"

इस वरदान के अनुसार शंकर का जन्म हुआ। जन्म से ही शंकर असाधारण बुद्धिमान थे। बचपन में ही उन्होंने वेद, उपनिषद, पुराण आदि का अध्ययन कर लिया था। 8 वर्ष की आयु में उन्होंने संन्यास लेने का निश्चय कर लिया।


रोचक किस्सा: मगरमच्छ और संन्यास

शंकराचार्य की माँ उन्हें संन्यास लेने नहीं देना चाहती थीं। एक दिन वे अपने गांव की नदी में स्नान कर रहे थे, तभी एक मगरमच्छ ने उनका पैर पकड़ लिया। शंकर ने तुरंत माँ से कहा – "माँ, अगर तुम संन्यास की अनुमति दो तो शायद मेरी जान बच जाए।" माँ ने विवश होकर अनुमति दी और उसी क्षण मगरमच्छ ने शंकर को छोड़ दिया।

इस घटना को शंकर ने ईश्वरीय संकेत माना और तत्क्षण घर त्यागकर संन्यास के मार्ग पर निकल पड़े।


गुरु से दीक्षा – गोविंद भगवत्पाद

शंकराचार्य ने मध्यप्रदेश के ओंकारेश्वर में गोविंद भगवत्पाद से दीक्षा ली। वे वेदव्यास परंपरा के महान संत थे। उन्होंने शंकर को अद्वैत वेदांत की गहराई से शिक्षा दी और साथ ही देश भर में ज्ञान का प्रचार करने का आदेश भी दिया।

शंकराचार्य का मुख्य उद्देश्य था – "सनातन धर्म की रक्षा और अद्वैत वेदांत का प्रचार।"


अद्वैत वेदांत: शंकराचार्य का दर्शन

"अहं ब्रह्मास्मि" (मैं ही ब्रह्म हूँ) – यह अद्वैत वेदांत का मूल सिद्धांत है। शंकराचार्य ने बताया कि आत्मा और परमात्मा अलग नहीं हैं। जो कुछ भी है, वह एक ही ब्रह्म है – अद्वितीय, निराकार और सर्वव्यापक।

उनका यह विचार उस समय के भौतिकवादी और रुढ़िवादी धार्मिक विचारों के लिए चुनौती था। शंकराचार्य ने ब्रह्मसूत्र, उपनिषद और भगवद्गीता पर भाष्य लिखकर इस विचार को मजबूत किया।


चार धाम और मठ स्थापना

भारत को सांस्कृतिक और धार्मिक रूप से जोड़ने के लिए आदि शंकराचार्य ने चार कोनों में चार मठों की स्थापना की:

  1. उत्तर – ज्योतिर्मठ (उत्तराखंड)

  2. दक्षिण – श्रृंगेरी मठ (कर्नाटक)

  3. पूर्व – गोवर्धन मठ (पुरी, ओडिशा)

  4. पश्चिम – शारदा मठ (द्वारका, गुजरात)

इन मठों के माध्यम से उन्होंने धर्म, शिक्षा और संतों की परंपरा को एक संरचित रूप दिया।


रोचक किस्सा: मंडन मिश्र और तर्क युद्ध

काशी में मंडन मिश्र नामक विद्वान ब्राह्मण थे जो कर्मकांड के समर्थक थे। शंकराचार्य ने उनसे शास्त्रार्थ किया। मंडन मिश्र की पत्नी उभया भारती निर्णायक बनीं।

शास्त्रार्थ कई दिनों तक चला। अंत में शंकराचार्य विजयी हुए। लेकिन उभया भारती ने कहा – "यदि तुम मेरे पति को हराए हो, तो पत्नी से भी तर्क करना होगा क्योंकि हम दोनों एक हैं।"

अब एक संन्यासी और एक गृहिणी के बीच कामशास्त्र पर वाद-विवाद होने लगा। चूंकि शंकराचार्य को उस विषय का अनुभव नहीं था, उन्होंने अपने योगबल से एक राजा के मृत शरीर में प्रवेश किया, संसारिक अनुभव प्राप्त किया, और फिर उभया भारती से सफलतापूर्वक तर्क किया।

इसने यह सिद्ध कर दिया कि वे केवल विद्वान ही नहीं, आत्मज्ञान के भी प्रतीक थे।


भारत भ्रमण और सांस्कृतिक एकता

आदि शंकराचार्य ने भारत के कोने-कोने का भ्रमण किया – कश्मीर से कन्याकुमारी तक। उन्होंने शास्त्रार्थ, प्रवचन और धर्मोपदेशों द्वारा भारत की सांस्कृतिक एकता को सुदृढ़ किया।

उन्होंने पाखंड, अंधविश्वास और जातिगत भेदभाव के विरुद्ध आवाज उठाई। वे सभी धर्मों और मतों को समरसता के साथ देखने में विश्वास रखते थे।


रोचक किस्सा: शिव स्वयं प्रकट हुए

एक बार वे काशी में थे। वहाँ एक चांडाल (अछूत माने जाने वाला व्यक्ति) उनके सामने आ गया। शंकराचार्य ने उसे हटने को कहा। चांडाल ने उत्तर दिया:

“हे स्वामी! क्या आप मेरे शरीर से दूर हटने को कह रहे हैं या आत्मा से? यदि आत्मा से, तो आत्मा तो ब्रह्म है – आपसे अलग नहीं। और यदि शरीर से, तो शरीर तो नश्वर है।”

शंकराचार्य स्तब्ध रह गए। वे समझ गए कि स्वयं भगवान शिव उन्हें अद्वैत का पाठ पढ़ाने आए हैं। उन्होंने चांडाल को प्रणाम किया और कहा – "तत्वमसि" (तू वही है)।

🔸 किस्सा: बालक शंकर और ज्ञान की प्यास

बहुत कम उम्र में ही शंकराचार्य वेदों के कठिनतम भागों को कंठस्थ कर लेते थे। एक बार उन्होंने अपने गुरु से पूछा — "क्या यह सब ज्ञान ही अंतिम है?" गुरु ने कहा, "नहीं शंकर, यह तो केवल प्रारंभ है। आत्मा को जानने का मार्ग आत्मचिंतन से होकर जाता है, केवल स्मरण से नहीं।"

इसने शंकराचार्य के जीवन की दिशा ही बदल दी। वे केवल शास्त्रों को रटने वाले नहीं बने, बल्कि उन्हें जीने वाले साधक बने।


🔸 किस्सा: शंकराचार्य और बुद्ध धर्म के अनुयायी

भारत भ्रमण के दौरान शंकराचार्य एक नगर में पहुँचे जहाँ बौद्ध भिक्षुओं का वर्चस्व था। वहाँ के लोग आत्मा को मिथ्या मानते थे और केवल क्षणिक क्षणों को सत्य।

शंकराचार्य ने एक सभा में अद्वैत का तर्क इतने सरल और प्रभावी ढंग से प्रस्तुत किया कि वहाँ के कई भिक्षु उनके अनुयायी बन गए। उन्होंने न केवल बहस की, बल्कि सभी मतों का सम्मान करते हुए समन्वय का मार्ग दिखाया।


🔸 किस्सा: माँ की अंतिम इच्छा

संन्यास लेने के बाद शंकराचार्य अपने घर नहीं लौटे। परंतु उन्हें अपनी माँ के अंतिम समय की जानकारी मिली। वे तुरंत घर लौटे और माँ के प्राणांत के समय उनका हाथ थामकर वेद मंत्रों से उनकी आत्मा की शांति के लिए प्रार्थना की।

संन्यासी होते हुए भी उन्होंने एक पुत्र के कर्तव्य का पालन किया। शंकराचार्य ने समाज को यह संदेश दिया कि ज्ञान और धर्म का मार्ग अपनाते हुए भी करुणा और कर्तव्य नहीं छोड़े जाते।


🔸 किस्सा: भिक्षा माँगते हुए शंकराचार्य

एक बार शंकराचार्य भिक्षा के लिए एक वृद्धा के द्वार पर पहुँचे। उसके पास कुछ भी देने को नहीं था, पर उसने एक सूखी आँवले की गाँठ उन्हें दे दी।

शंकराचार्य इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने वहीं पर 'कनकधारा स्तोत्र' की रचना की। कहते हैं, माँ लक्ष्मी इतनी प्रसन्न हुईं कि वृद्धा के घर में स्वर्ण की वर्षा हो गई।

इससे यह संदेश मिलता है कि श्रद्धा से दिया गया छोटा सा दान भी ईश्वर को प्रसन्न कर सकता है।


🔸 किस्सा: आत्मज्ञान की अंतिम परीक्षा

अपने जीवन के अंतिम दिनों में उन्होंने अपने कुछ शिष्यों से कहा – "जिसने आत्मा को जाना, वही इस शरीर की सीमा से मुक्त है। बताओ, तुम में से कौन इस सीमा से परे गया है?"

कुछ शिष्य मौन रहे, कुछ ने शास्त्र उद्धृत किए। पर एक शिष्य — हस्तामालक — ने केवल मुस्कराते हुए कहा:
"मैं नहीं जानता कि मैं कौन हूँ, पर मैं जानता हूँ कि 'मैं' केवल जानने योग्य नहीं, अनुभव करने योग्य हूँ।"

शंकराचार्य मुस्कराए — उन्होंने उसे उत्तराधिकारी बना दिया।


🔸 चार प्रमुख शिष्य

  1. पद्मपाद – उन्होंने शंकराचार्य की शिक्षाओं को दक्षिण भारत में फैलाया।

  2. हस्तामालक – एक मौनयोगी, आत्मज्ञान में पारंगत।

  3. तोटकाचार्य – कम शिक्षित होने पर भी समर्पण में श्रेष्ठ।

  4. सुरेश्वराचार्य – पहले मंडन मिश्र, जो बाद में शंकराचार्य के शिष्य बनें।

इन चारों ने उनके दर्शन को देश के चार कोनों तक पहुँचाया।


🔸 किस्सा: एक शव और आत्मतत्व की शिक्षा

एक बार शंकराचार्य अपने शिष्यों के साथ घाट पर जा रहे थे। एक शव को चिता पर ले जाया जा रहा था। शंकर ने पूछा –
"क्या तुम सबने कभी सोचा, यह कौन मर गया? शरीर तो मिट्टी में बदलने को है, आत्मा तो अविनाशी है। फिर कौन मरा?"

शिष्य मौन रह गए।

उन्होंने कहा – "मृत्यु केवल अज्ञान की है, आत्मा कभी मरती नहीं। इसे जानो और मुक्त हो जाओ।"


🔸 प्रेरणादायक शिक्षा

  • "मन ही बंधन है, और मन ही मुक्ति।"

  • "कर्म करो, पर उसमें आसक्ति मत रखो।"

  • "सत्य एक है, मार्ग अनेक।"


रचनाएँ

आदि शंकराचार्य ने 100 से अधिक ग्रंथों की रचना की। इनमें प्रमुख हैं:

  • भाष्य ग्रंथ: ब्रह्मसूत्र भाष्य, भगवद्गीता भाष्य, उपनिषद भाष्य

  • स्तोत्र: सौंदर्य लहरी, भज गोविंदं, आत्मबोध, निर्वाण षट्कम्, विवेकचूडामणि

  • प्रकरण ग्रंथ: आत्मबोध, उपदेश साहस्री

इन ग्रंथों में आध्यात्मिक गहराई, भक्ति और विवेक का अनूठा संगम है।


अंतिम दिन और समाधि

केवल 32 वर्ष की आयु में, शंकराचार्य ने उत्तराखंड के केदारनाथ क्षेत्र में अपना देह त्याग किया। माना जाता है कि उन्होंने समाधि ली और ब्रह्म में लीन हो गए।

उनकी समाधि आज भी केदारनाथ में मौजूद है और लाखों श्रद्धालु वहाँ जाकर उन्हें श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं।


विरासत और प्रभाव

  • शंकराचार्य ने जो विचार दिए, वे केवल धार्मिक नहीं, बल्कि सांस्कृतिक और दार्शनिक रूप से भी भारत की आत्मा को जोड़ते हैं।

  • उनके अद्वैत वेदांत ने आत्मज्ञान को सरल और सभी के लिए सुलभ बनाया।

  • उनके मठ आज भी भारतीय सनातन परंपरा के केंद्र बने हुए हैं।


निष्कर्ष

आदि शंकराचार्य केवल एक संत नहीं थे, वे एक युगद्रष्टा, विचारक और भारत को एक सूत्र में बाँधने वाले महामानव थे। उन्होंने जो दर्शन दिया – “ब्रह्म सत्यं, जगन्मिथ्या” – वह आज भी आत्मचिंतन और आत्मज्ञान का मार्गदर्शन करता है।

उनका जीवन इस बात का प्रतीक है कि एक व्यक्ति, यदि ज्ञान और संकल्प से परिपूर्ण हो, तो वह सम्पूर्ण समाज को जागृत कर सकता है।



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