Story of judicial hanging in India- Dhananjoy Chatterjee
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Story of judicial hanging in India- Dhananjoy Chatterjee |
धनंजय चटर्जी (14 अगस्त 1965 - 14 अगस्त 2004) पहले व्यक्ति थे जिन्हें हत्या के लिए 21वीं सदी में भारत में न्यायिक रूप से फांसी दी गई थी। 14 अगस्त 2004 को कोलकाता के अलीपुर जेल में फाँसी की सजा दी गई। उन पर 1990 में 18 वर्षीय स्कूली छात्रा हेतल पारेख के बलात्कार और हत्या के अपराधों का आरोप लगाया गया था।
निष्पादन ने सार्वजनिक बहस को उभारा और मीडिया का अत्यधिक ध्यान आकर्षित किया। धनंजय को दोषी ठहराया गया और उसे फांसी दे दी गई।
पश्चिम बंगाल में 21 अगस्त 1991 के बाद अलीपुर जेल में यह पहली फांसी थी।
व्यक्तिगत जीवन
धनंजय का जन्म कुलुडीही, बांकुरा पश्चिम बंगाल, भारत में हुआ था और उन्होंने कोलकाता में एक सुरक्षा गार्ड के रूप में काम किया था। हेतल पारेख मामले में गिरफ्तार होने से ठीक आठ महीने पहले उसने पूर्णिमा से शादी कर ली थी। पूर्णिमा 1,200 रुपये प्रति माह के वेतन के साथ एक आंगनवाड़ी कार्यकर्ता के रूप में काम करती है और उसके फाँसी के बाद भी अपने माता-पिता के साथ रहती है, अपने पति की फांसी के बाद भी उसने पुनर्विवाह से इनकार कर दिया है।
मामले का विवरण
हेतल पारेख कोलकाता के बाउबाजार स्थित वेलैंड गॉल्डस्मिथ स्कूल की छात्रा थीं। वह भवानीपुर में आनंद अपार्टमेंट की तीसरी मंजिल के फ्लैट में अपने माता-पिता और बड़े भाई के साथ रहती थी। पारेख 1987 में इस फ्लैट में आए थे। धनंजय इस एजेंसी के सुरक्षा गार्ड थे। उन्होंने करीब तीन साल तक उस बिल्डिंग में काम किया था।
5 मार्च 1990 को धनंजय ने सुबह की पाली (सुबह 6 बजे से दोपहर 2 बजे तक) के दौरान सुरक्षा ड्यूटी निभाई। हेतल सुबह करीब साढ़े सात बजे आईसीएसई की परीक्षा के लिए निकली। उसके बाद सर के घर कॉपी चेक करवाने गई थी। घर पर नहीं मिले तो वापस आ गई। दोपहर में फ्लैट में केवल हेतल और उसकी मां ही थीं।
दोपहर में हेतल की मां पास के एक मंदिर में दर्शन करने गई थी। मंदिर से लौटने के बाद, वह अपने घर में प्रवेश करने में असमर्थ थी, बार-बार दस्तक देने के बावजूद, अन्य फ्लैटों के कुछ नौकरों ने दरवाजा तोड़ने के लिए कहा। लिविंग रूम को पारेख दंपत्ति के बेडरूम से जोड़ने वाले दरवाजे के पास हेतल मृत पड़ी मिली, जिसके चेहरे और फर्श पर खून के धब्बे थे। दो स्थानीय डॉक्टरों ने हेतल की जांच की और उसे मृत घोषित कर दिया।
कई लोगों ने उसे हेतल की बालकनी में होने के बारे में बताया था। लिफ्टमैंन ने भी गवाही में उसे हेतल वाले फ्लोर पर होने की बात की। हत्याकांड का खुलासा होने के बाद से धनंजय इलाके में नहीं दिखे।वह पुलिस जांच का केंद्र बिंदु बन गया। दो महीने बाद 12 मई 1990 की तड़के, बांकुरा के छतना के पास कुलुडीही में उनके गाँव के घर से पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया। हेतल पारेश (Hetal Parekh) का केस काफी लंबा चला। खबरों के मुताबिक धनंजय ने हेतल को मारने के बाद उसकी लाश के साथ भी रेप किया था।
मामले की जांच कोलकाता पुलिस के डिटेक्टिव डिपार्टमेंट ने की थी। पुलिस द्वारा तैयार की गई चार्जशीट में रेप, हत्या और कलाई घड़ी चोरी के आरोप शामिल हैं। सुनवाई अलीपुर में अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश की दूसरी अदालत में हुई। चूंकि हत्या का कोई प्रत्यक्ष गवाह नहीं था, इसलिए मामला परिस्थितिजन्य साक्ष्य पर ही टिका था। सत्र अदालत ने धनंजय को सभी अपराधों के लिए दोषी ठहराया और उसे मौत की सजा सुनाई, कलकत्ता में उच्च न्यायालय और भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने दोषसिद्धि और मौत की सजा को बरकरार रखा। सुप्रीम कोर्ट ने धनंजय को दोषी ठहराया और अपराध को अपराधों के एक जघन्य संयोजन के रूप में माना, इस तथ्य से बढ़ गया कि एक सुरक्षा गार्ड के रूप में धनंजय पीड़ित की सुरक्षा के प्रभारी थे - यह दुर्लभ से दुर्लभ श्रेणी के अपराधों से संबंधित होने के लिए पर्याप्त है - वारंट एक मौत की सजा।
2004 में राष्ट्रपति ने उसकी दया याचिका को खारिज कर दिया और उसे फांसी के तख्ता पर चढ़ाया गया।
बेगुनाही का दावा
धनंजय ने अपने मुकदमे के दौरान बार-बार दावा किया था कि वह पूरी तरह से निर्दोष था और उसका हत्या, बलात्कार या चोरी से कोई लेना-देना नहीं था। उन्होंने अपने निष्पादन के दिन तक अपना रुख बनाए रखा।
विवाद
पूरे कोलकाता में इस निर्मम ह्त्या के ख़िलाफ़ ज़बरदस्त आक्रोश उमड़ा और अपराधी को फांसी की सज़ा देने ले लिए अभूतपूर्व जनदबाव बना. चौदह बरस की कैद के बाद चौदह अगस्त, 2004 को धनंजय को फांसी दे दी गयी।
इस फांसी के ग्यारह साल बाद इन्डियन स्टैटिस्टिकल इंस्टिट्यूट, कोलकाता के अध्येता कानूनविदों देबाशीष सेनगुप्ता और प्रबाल चौधुरी ने इस फ़ैसले और पूरे मुक़दमे की प्रक्रिया, गवाहों के बयान और साक्ष्यों का परत-दर-परत विश्लेषण करते हुए अपने अकाट्य तर्कों से यह साबित किया है कि धनंजय अपराधी नहीं था और संभवतः असली अपराधियों को बचाने के लिए उसे फंसाया गया था।
2015 में आयी ‘अदालत-मीडिया-समाज एबोंग धनञ्जयेर फाशी’ इस किताब ने बहुत हलचल मचाई। याद रखना चाहिए कि धनञ्जय ने 14 बरस जेल में बिताए थे जो एक उम्रकैद के बराबर वक्फ़ा है। और इस में यह भी जोड़ लें कि उसने इस में से अधिकाँश समय फांसी के रस्से में झूलती अपनी गर्दन की कल्पना करते हुए बिताया. अब सेनगुप्ता और चौधुरी के ठोस तर्कों को मानकर पलभर को कल्पना करें कि धनंजय निर्दोष था और हिसाब लागाएं कि उसने एक न किए गए अपराध के लिए कितनी गुना त्रासद सज़ा पायी।
यहाँ पर अमरीका के कार्लोस डेलूना के उदाहरण को याद किया जा सकता है. 1983 में डेलुना को वांडा लोपेज़ नामक महिला की हत्या के आरोप में गिरफ्तार किया गया, दोषी पाया गया और मौत की सजा सुना दी गयी. डेलुना के बार बार निर्दोष होने की गुहार लगाने के बावजूद उसे वहां प्रचलित पद्धति के अनुरूप नींद का इंजेक्शन देकर मृत्युदंड दे दिया गया। बाद में कोलंबिया विश्वविद्यालय के कानूनविदों ने पूरे केस का गहन अध्ययन कर यह साबित किया कि हत्या कार्लोस ने नहीं, उससे मिलते जुलते नाम और कद काठी वाले एक और व्यक्ति ने की थी. पर अब कुछ नहीं हो सकता था।
दुनिया के 140 देशों में मृत्युदंड नहीं है और वहां अपराधों की दर बढ़ी नहीं है।
दरअसल सच यही है कि हमारे देश में मृत्युदंड दी जाने की निर्भरता तीन ही बातों पर निर्भर करती हैं, पहली – अच्छी कानूनी मदद तक अभियुक्त की पहुँच, दूसरी- अभियुक्त की सामाजिक-आर्थिक हैसियत और तीसरी- फैसला सुनाने वाले न्यायाधीश की अभिरुचि. अपराध की जघन्यता से फांसी का कोई आनुपातिक सम्बन्ध हमारे यहाँ दी गयी सजाओं के आधार पर नहीं बनाया जा सकता. नेशनल लॉ यूनिवर्सिटी, दिल्ली के अध्येताओं द्वारा ‘डेथ पेनल्टी रिसर्च प्रोजेक्ट’ के तहत किये गए अध्ययन में सामने आया कि फांसी की सजा पाए कैदियों में बहुतायत गरीब, सामाजिक रूप से पिछड़े और अल्पसंख्यकों की ही रही है. इनमें से अस्सी फीसदी स्कूली शिक्षा भी पूरी नहीं कर सके और आधे नाबालिग होते हुए ही मजदूरी में जुट चुके थे. इनमें से अधिकाँश को सरकार द्वारा वे वकील मुहैया करवाए गए जो आम तौर पर जूनियर, कम काबिल और न रूचि लेने वाले थे. अच्छी कानूनी मदद यानी दक्ष वकील ही यदि फांसी या मुक्ति तय करता है तो यह अपराध की नहीं बल्कि गरीबी की सज़ा ही हुई.
प्रसिद्द अधिवक्ता युग मोहित चौधरी ने दूसरे शाहिद आज़मी स्मृति व्याख्यान में ऐसे अनेक उदाहरण गिनाये थे जहाँ हमारी ‘चुस्त’ पुलिस ने अभियुक्तों से गुनाह क़ुबूल करवा लिया और फिर बाद में असली गुनाहगार पकडे गए. इसी तरह कुछ न्यायाधीश फांसी की सजा में तगड़ा स्ट्राइक रेट रखते हैं, इसलिए किसी के फांसी पाने की सम्भावना इस बात से भी तय होगी कि उसका मुकदमा जस्टिस पसायत के पास पहुंचा है या जस्टिस बालाकृष्णन के पास.
इस सन्दर्भ में पीयूडीआर द्वारा बिहार में 1980 और 1990 के दशक में हुए हत्याकांडों के इतिहास के सन्दर्भ में अलग-अलग फैक्ट फाइंडिंग जांचों के आधार पर बनी रिपोर्ट को भी देखा जा सकता है. बथानी टोला, लक्षमणपुर बाथे जैसे भीषण हत्याकांडों में किसी को मौत की सज़ा नहीं हुई. सबूतों के अभाव में सब बरी हो गए.
पिछले दिनों आरुषि और हेमराज हत्याकांड बहुत चर्चा में रहा, पहले माता पिता को दोषी मानकर सजा सुनाई गयी. फिर अविरूक सेन की पुस्तक और उस पर आधारित फिल्म ने जांच और उस पर आधारित निर्णय को संदेह के घेरे में ला दिया. अंततः तलवार दम्पती रिहा हुए. हमें नहीं पता, सच क्या है लेकिन यह महत्त्वपूर्ण है कि गलती महसूस होने पर उसे बदल पाना संभव है और ऐसा किया गया. (तलवार दम्पती की सामाजिक हैसियत ने भी कहीं न कहीं उनके पक्ष में जुटने और नए सिरे से तथ्यान्वेषण के लिए लोगों को प्रेरित किया होगा. जो धंनजय के पास नहीं थी.)
पर फांसी के बाद पुनर्विचार संभव नहीं है. धनञ्जय यदि निर्दोष था तो उसकी हत्या का दाग किस पर लगेगा ?
अरिंदम सिल की बंगला फिल्म ‘धंनजय’ नए साक्ष्यों के आलोक में पूरे मामले को नए सिरे से देखती है और एक न हुई बहस की कल्पना प्रस्तुत करती है. इस न हो पायी बहस को देखना और पूरे मामले को गहराई से समझना हमें तत्कालीन आवेग की व्यर्थता तो बताता ही है साथ ही एक विषाद भी गहरा जाता है.
क्योंकि मृत्यु के बाद वापसी संभव नहीं है.
धनंजय की फांसी 25 जून 2004 को निर्धारित की गई थी। उनके परिवार द्वारा भारत के सर्वोच्च न्यायालय में याचिका दायर करने और तत्कालीन राष्ट्रपति स्वर्गीय डॉ एपीजे अब्दुल कलाम के साथ दया याचिका दायर करने के बाद इसे रोक दिया गया । 26 जून 2004 को धनंजय की फांसी सुनिश्चित करने के लिए एक अभियान शुरू किया गया था। पश्चिम बंगाल के तत्कालीन मुख्यमंत्री श्री बुद्धदेव भट्टाचार्जी की पत्नी श्रीमती मीरा भट्टाचार्जी ने अभियान का नेतृत्व किया। फांसी का विरोध करने के लिए कई व्यक्ति और मानवाधिकार समूह आगे आए। 4 अगस्त 2004 को राष्ट्रपति द्वारा खारिज कर दी गई।
धनंजय, मामले की घटनाओं पर आधारित एक फिल्म 11 अगस्त 2017 को क्षेत्रीय और अमेज़ॅन अमेज़न प्राइम ने रिलीज़ किया. फिल्म का निर्देशन अरिंदम सिल ने किया था, और अनिर्बान भट्टाचार्य और मिमी चक्रवर्ती को मुख्य भूमिकाओं में कास्ट किया था
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