Harriet Tubman की प्रेरणादायक जीवनी | Inspirational Life Story in Hindi
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| Yasser Arafat holding an olive branch — a timeless symbol of peace and resistance, reflecting the spirit of Palestine’s struggle for freedom. |
20वीं सदी में अगर किसी एक चेहरे ने पूरी दुनिया में आज़ादी के प्रतीक के रूप में पहचान बनाई, तो वह था — यासिर अराफ़ात (Yasser Arafat)।
एक साधारण से युवक ने, जिसने अपना घर छोड़ दिया था, अपने जीवन को उस भूमि के लिए समर्पित कर दिया, जिसे दुनिया "फ़िलिस्तीन" के नाम से जानती है।
अराफ़ात केवल एक नेता नहीं थे — वे विचार थे, संघर्ष थे, और उम्मीद की लौ थे, जो दशकों तक जली।
यासिर अराफ़ात की राजनीतिक यात्रा को समझने के लिए बैरी रूबिन की Yasir Arafat: A Political Biography एक विस्तृत और महत्वपूर्ण संसाधन है।
जन्म: 24 अगस्त 1929
स्थान: काहिरा, मिस्र
पूरा नाम: मोहम्मद अब्दुल रहमान अब्दुल रऊफ अराफ़ात अल-कुदवा अल-हुसैनी
यासिर अराफ़ात का बचपन उतना आसान नहीं था।
उनके पिता एक व्यापारी थे, जबकि मां की मृत्यु बहुत जल्दी हो गई।
बचपन में ही अराफ़ात को एहसास हुआ कि वे एक ऐसी कौम से हैं, जिसकी पहचान छीनी जा रही थी — फिलिस्तीनी अरब।
मिस्र में पले-बढ़े अराफ़ात ने इंजीनियरिंग की पढ़ाई की, पर दिल में राजनीति और आज़ादी की चिंगारी जल रही थी।
कहते हैं, कॉलेज के दिनों में ही उन्होंने अपने दोस्तों से कहा था —
“मैं तब तक चैन से नहीं बैठूंगा जब तक मेरी ज़मीन, मेरा फिलिस्तीन आज़ाद नहीं हो जाता।”
1950 के दशक में यासिर अराफ़ात ने कुछ हमवतन साथियों के साथ मिलकर एक संगठन बनाया —
“अल-फतह (Fatah)”, जिसका अर्थ है “विजय”।
यह कोई राजनीतिक पार्टी नहीं थी — यह था एक क्रांतिकारी आंदोलन।
उनका उद्देश्य साफ़ था:
इस्राइल के कब्जे से फिलिस्तीन को मुक्त कराना, चाहे हथियार उठाने पड़ें या कूटनीति अपनानी पड़े।
अराफ़ात के नेतृत्व में फतह ने छापामार युद्ध, प्रचार अभियान और अंतरराष्ट्रीय समर्थन जुटाने के लिए काम किया।
धीरे-धीरे यह आंदोलन अरब दुनिया में लोकप्रिय होता गया।
1964 में बना PLO (Palestine Liberation Organization) शुरू में मिस्र और अरब देशों के नियंत्रण में था,
लेकिन 1969 में यासिर अराफ़ात इसके चेयरमैन बने —
और यहीं से उनकी असली यात्रा शुरू हुई।
अराफ़ात ने PLO को एक लड़ाकू संगठन से जन आंदोलन में बदल दिया।
उन्होंने कहा:
“हमारी लड़ाई सिर्फ बंदूकों की नहीं, बल्कि हमारी पहचान, हमारे अस्तित्व और हमारे बच्चों के भविष्य की है।”
उनकी वेशभूषा — सफेद-काले स्कार्फ (कुफ़ियाह) — फिलिस्तीनी प्रतिरोध का प्रतीक बन गई।
1970–80 के दशक में अराफ़ात और PLO ने इस्राइल के खिलाफ कई सैन्य अभियानों का नेतृत्व किया।
जॉर्डन, लेबनान और सीरिया जैसे देशों में उन्हें आश्रय और विरोध दोनों मिला।
1970 में “ब्लैक सितंबर” की घटना ने दुनिया को हिला दिया —
जब जॉर्डन की सेना और PLO में टकराव हुआ, और हजारों फिलिस्तीनी मारे गए।
अराफ़ात को जॉर्डन छोड़ना पड़ा और उन्होंने लेबनान में नया ठिकाना बनाया।
लेबनान से PLO ने इस्राइल पर कई हमले किए,
जिसका परिणाम था — 1982 का इस्राइल–लेबनान युद्ध,
जिसमें अराफ़ात को ट्यूनीशिया भागना पड़ा।
फिर भी, अराफ़ात ने हार नहीं मानी।
उन्होंने हथियारों के साथ-साथ राजनीतिक और कूटनीतिक रास्ते अपनाने का फैसला किया।
1988 में यासिर अराफ़ात ने अल्जीरिया में फिलिस्तीन राज्य की स्वतंत्रता की घोषणा की।
यह ऐतिहासिक क्षण था —
जब पहली बार पूरी दुनिया ने अराफ़ात को एक राज्य प्रमुख के रूप में देखा।
उन्होंने संयुक्त राष्ट्र महासभा में कहा:
“मेरे एक हाथ में जैतून की डाली है और दूसरे में बंदूक — इसे गिरने मत देना।”
यह वक्तव्य उनके दो रास्तों की पहचान बना —
शांति और प्रतिरोध।
1993 में इस्राइल और PLO के बीच “ओस्लो समझौता” हुआ,
जहाँ यासिर अराफ़ात ने इस्राइल को मान्यता दी,
और बदले में इस्राइल ने फिलिस्तीनी स्वशासन का वादा किया।
यह समझौता इतिहास में दर्ज हो गया,
क्योंकि पहली बार दोनों दुश्मन एक मंच पर आए।
1994 में,
अराफ़ात को इस्राइली प्रधानमंत्री यित्ज़ाक राबिन और शिमोन पेरेस के साथ
नोबेल शांति पुरस्कार मिला।
यह सम्मान फिलिस्तीनी संघर्ष की एक राजनीतिक जीत थी।
1996 में यासिर अराफ़ात फिलिस्तीनी अथॉरिटी (Palestinian Authority) के पहले राष्ट्रपति बने।
उन्होंने प्रशासन, शिक्षा, और स्वास्थ्य जैसी बुनियादी व्यवस्थाओं को संभालने की कोशिश की।
लेकिन चुनौतियाँ बहुत थीं —
इस्राइल की सख्त नीतियाँ, सीमाओं का विवाद, आतंकी हमले और अंतरराष्ट्रीय दबाव।
अराफ़ात पर कई बार भ्रष्टाचार और आतंकवाद को बढ़ावा देने के आरोप लगे,
लेकिन फिलिस्तीन की जनता के लिए वे हमेशा “अबू अम्मार — राष्ट्रपिता” बने रहे।
2000 के बाद दूसरी इंतिफादा (फिलिस्तीनी विद्रोह) शुरू हुई,
जिसमें हिंसा और दमन ने फिर से क्षेत्र को हिला दिया।
इस्राइल ने अराफ़ात को उनके मुख्यालय रामल्ला (Ramallah) में नज़रबंद कर दिया।
वे बीमार पड़ गए, और 11 नवंबर 2004 को पेरिस के एक सैन्य अस्पताल में उनका निधन हो गया।
उनकी मौत आज भी रहस्य है —
कई रिपोर्टों में ज़हर देने की संभावना बताई गई,
लेकिन कोई निर्णायक सबूत नहीं मिला।
उनका शव फिलिस्तीन लाया गया,
जहाँ लाखों लोगों ने उन्हें रोते हुए कहा —
“हमारा नेता चला गया, पर उसकी लड़ाई ज़िंदा है।”
यासिर अराफ़ात आज भी अरब दुनिया के लिए विरोध और पहचान का प्रतीक हैं।
उनके आलोचक उन्हें विवादित नेता मानते हैं,
लेकिन समर्थक उन्हें स्वतंत्रता का मसीहा कहते हैं।
उनकी विरासत आज भी जिंदा है —
हर फिलिस्तीनी के दिल में, हर पोस्टर पर, हर उम्मीद में।
यासिर अराफ़ात की कहानी हमें सिखाती है कि —
कोई संघर्ष छोटा नहीं होता अगर उसमें लोगों की आवाज़ शामिल हो।
एक नेता की पहचान केवल उसकी जीत से नहीं, बल्कि उसकी जिद और धैर्य से होती है।
और कभी-कभी शांति की सबसे ऊँची कीमत, वही लोग चुकाते हैं जो युद्ध को सबसे करीब से देखते हैं।
यासिर अराफ़ात का जीवन एक लंबी यात्रा थी — बंदूक से जैतून की डाली तक।
उन्होंने अपने राष्ट्र के लिए सब कुछ दांव पर लगाया,
और यही कारण है कि आज भी उनका नाम
फिलिस्तीन की आज़ादी के साथ अमरता से जुड़ा है।
“हम मर सकते हैं, लेकिन हमारे सपने कभी नहीं मरेंगे।”
— यासिर अराफ़ात
References
Rubin, Barry. Yasir Arafat: A Political Biography. Routledge, 2002.
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